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سراسر,شب را
سراسیمه،
تاسحرسرودم
شاید!
به پایانت برم!
. اى غزل!
اما نازنینم،
آغازت بى پایان بود...
ومن درهنگامه ی هبوط
تنهایی جاودانه را
آه ،با چه حسرت،به تماشا نشستم
گویى،میدانستم زیر,بارنگاه,تاریخ!
طعنه هاى تمام ناشدنى!
و داورى، آرى،داورى,جاوید,فرزندانم
تنهااین است سرنوشت محتوم من:
" تبعیدى,خود خواسته"