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چــقدر بـاغِ دل ناگـهان، پـژمـرد وفــرســود
هرکـــو تارِ دلـش باتـــو، گـــره خورده بـود
تــورفتـی زمســتان آمـد، آتــش بــرافروخت
ســـراســرآســمانِ دل ، غــرقِ مـــه و دود
منـــجمد شــد رودِ باور، پــس ازکــوچِ تـــو
کهـــنه واگــنی که دگـــر، راهــی نپیـــمود
زبــانِ بی رنـگم بـه کام ، مـــیداد سـر به بـاد
گـرمصـلحـت ایــن بِـه کـه درآرامــش غـــنود
مــباد آن شب کــه شاعــرتا به صــبح نــخوابد
بـــه یــادِ غـزلــهائــی کـه نــبایـد ســـرود!
مــن وتـو نـه گل وبلــبل، درمــان و دردیـــم
رســد آیــا وصـــال پــسِ ،فـــراز و فــرود!؟
هـرآنـکــه گفت عـشق ازجنسِ درد و بلا نیست!
یقـین از نــاوکِ مــــژگان، تــیر نـــخورده بود
بـگـو ای عـشقِ بـی هــنگام، سـقفِ بـی روزن
کــه زیــرِآســـمانِ تـنگـت، کدام دل آســـود!؟